जयंती पर विशेष, शेर को सलाम

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शौर्य और उदारता के प्रतीक हैं 1857 के योद्धा बाबू कुंवर सिंह
बक्सर खबर। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में वीर कुंवर सिंह सर्वाधिक चर्चित सेना नायक थे। सामरिक युद्ध कौशल में पारंगत होने के साथ ही अपनी उदारता एवं सामाजिक सद्भाव के लिए विख्यात हैं। उस महासंग्राम में ये एकमात्र नायक थे, जिन्होंनेे अंग्रेजों के साथ लड़ते हुए अपने क्षेत्र को आजाद करा लिया। उसी आजादी का पारंपरिक विजयोत्सव दिवस आज 23 अप्रैल को बड़े धुमधाम से मनाया जाता है। (इस तिथि को उनका जन्म दिवस भी मनाया जाता है। जन्म को लेकर दूसरी तिथि भी बताते हैं)
बिहार के भोजपुर जिला अंतर्गत जगदीशपुर में एक जमींदार परिवार के घर 1777 में कुंवर सिंह का जन्म हुआ था। बचपन से ही ये अस्त्र-शस्त्र और घुड़सवारी के शौकीन थे। युवावस्था में आम जमींदारों के पारंपरिक स्वभाव से अलग कुंवर सिंह गरीबों के प्रबल हितैषी और समभाव के आग्रही थे। उन्होंने किसानों की मांग पर सिंचाई के लिए अनेक बांध एवं पईन बनवाएं, जो आज भी क्षेत्र में बाबू बांध, बाबू का आहर और बाबू का पई के नाम से जाने जाते हैं। इनकी दानशीलता एवं उदारता के किस्से शाहाबाद के घर-घर में बड़े चाव से सुनाए जाते हैं। एक बार कुंवर सिंह घोड़े पर सवार होकर जा रहे थे। रास्ते में धान रोप रही महिलाएं उन्हें कादो (कींचड) लगाने के लिए रोक दीं। प्रचलन के अनुसार भूस्वामी को कादो लगाने पर रोपनीहारिनों को नेग(बख्शीस) दिया जाता था। सभी रोपनीहारिन नेग लेने के लिए उनके पास आईं लेकिन एक युवती खेत में खड़ी रह गई। महिलाओं के पूछने पर उसने बताया कि मेरा मायका जगदीशपुर है। ये मेरे बाबा लगते हैं। मैं इन्हें कादो कैसे लगाउंगी? कुंवर सिंह उसे पास बुलाये और हाथों से इशारा करते हुए बोले आज से यह बधार (खेती योग्य बड़ा भूभाग) तुम्हारा है। उसी दिन से जगदीशपुर-पीरो पथ में अवस्थित वह बधार दुसाधी बधार के नाम से जाना जाता है।

अंग्रेजों के विरूद्ध प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दू, मुस्लिम, दलित एवं पिछड़ी जाति के लोगों ने उनका भरपूर साथ दिया। अली करीम, वारिस अली, इब्राहिम खॉ, द्वारिका माली, रणजीत ग्वाला एवं देवी ओझा आदि इनके विश्वासपात्र थे। इनके पंचों में अल्पसंख्यक एवं पिछड़ी जाति के साथ दलित सदस्य भी थे, जिसकी चर्चा आज भी उदहरण के बतौर की जाती है। आरा में शासन स्थापित करने के बाद कुंवर सिंह ने गुलाम याहिया खॉ को प्रथम जिला मजिस्ट्रेट नियुक्त किया। तुराब अली एवं खादिम अली को थानों का कोतवाल बनाया।
ए यूनिक ट्रायल ऑफ द आरा टाउन (1882)में चर्चा की गयी है कि बाबू साहब के जिन सहयोगियों को फांसी के फंदे पर लटकाया गया था, उनमें अन्य लोगों के अतिरिक्त भेखू जुलाहा, भाला अहीर एवं सोमू दुसाध आदि शामिल थे। बाबू कुंवर सिंह में उदरता, मानवीयता एवं करूणा का ऐसा सम्मिश्रण था, जो उनके व्यक्तित्व को देवोपम बना देता है। अंग्रेज लेखक हॉल, जो आरा स्टेशन पर सहायक सर्जन था ने लिखा है संघर्ष के क्रम में कुछ यूरोपियन तथा कुछ अंग्रेज परिवार कुंवर सिंह के अधिकार में चले गये थे लेकिन उनके साथ बाबू साहब ने मानवीय व्यवहार किया तथा उदारता के साथ सुरक्षित रखा था। उन्होने किसी यूरोपियन के साथ अत्याचार नहीं किया। उन वंदियों को कुंवर सिंह ने आरा हाउस (वर्तमान में महाराजा कॉलेज आरा परिसर में स्थित) में रखा था। विनायक दामोदर सावरकर ने तो यहां तक लिखा है आरा में पहली झड़प में ही कुछ बंगाली बाबुओं को पकड़ा गया था, जो अंग्रेजों की नौकरी करते थे। जब सिपाहियों ने उन्हें बाबू साहब के सम्मुख उपस्थित किया तो उस पुरूष सिंह ने उन्हें सम्मान के साथ हाथियों पर बिठाकर पटना भेजने की व्यवस्था कर दी।
आरा में 8 जुलाई 1955 को स्कूल के निर्माण समारोह में बाबू साहब ने भूमिदान के अतिरिक्त 100 रूपये का चंदा दिया था। जगदीशपुर में उन्होंने स्कूल बनवाया, जिसमें उस समय 41 विद्यार्थी पढ़ते थे। यही नहीं बाबू साहब ने जगदीशपुर तथा आरा में धर्मन मस्जिद बनवाकर जिस सद्भाव और सहिष्णुता का परिचय दिया, वह अत्यंत दुलर्भ एवं अनुकरणीय है। विशेषकर आज के दौर में। जगदीशपुर में उन्हीं के गढ़ से ताजिया निकलने और दशहरा में दिन के उजाले में रामलीला मंचन की परम्परा आज भी यथावत बरकरार है।
1857 में दानापुर के सिपाही विद्रोह के बाद बाबू कुंवर सिंह ने क्षेत्र के लोगों को संगठित कर एक सशक्त सेना तैयार किया। उन्होंने पहली लड़ाई आरा से पूरब कायमनगर और दूसरी आरा से 10 किमी पश्चिम बीबीगंज में लड़ीं। उसके बाद सासाराम की ओर से रींवा, बांदा, कानपुर, लखनऊ, आजमगढ़ एवं बनारस आदि में कई लड़ाइयां लड़ीं। उनकी सेना गुरिल्ला युद्ध में पारंगत थीं। आजमगढ़ में इनकी सेना अंग्रेजों से परास्त होकर पीछे लौट गई। अंग्रेज शाम होते ही खुशी का जश्न मनाने लगे। बाबू साहब की सेना ने ऐन वक्त पर हमला कर हथियार सहित अंग्रेजों को बंदी बना लिया। मध्य प्रांत की सरकार के सचिव लेफ्टिनेंट कर्नल आर. स्ट्रेली ने लिखा है। विद्रोहियों के नेता के रूप में कुंवर सिंह ने रींवा क्षेत्र में प्रवेश किया। अंग्रेज विरोधी उनकी सहायता कर रहे थे। रींवा स्टेट गजेटियर के अनुसार उनके साथ 4500 लोगों का काफिला था। रीवा से बांदा, कानपुर, लखनऊ, आजमगढ़ क्षेत्र से विद्रोही सैनिकों के बदौलत अंग्रेजों को मात देते हुए बाबू साहब उत्तर प्रदेश के बलिया जिला के शिवपुर घाट पर पहुंचे। अंग्रेज मजिस्ट्रेट ने वहां की सभी नावों को हटवा दिया था। बाबू साहब के प्रति अपार जन समर्थन का ही परिणाम था कि अंग्रेजों के लाख हिदायत के बावजूद पानी में डूबो कर रखी गई दर्जनों नावें अचानक गंगा की लहरों पर लहराने लगीं। बाबू साहब अपनी सेना के साथ गंगा पार कर रहे थे तभी एक गोली उनकी बायी बांह के अगले हिस्से में लगी। बगैर विलंब किए बाबू साहब ने जख्मी भुजा को अपने ही हाथों काटकर गंगा माता को समर्पित कर दिया। यह उनके साहस की पराकाष्ठा थी। उन्होंने आरा में अपने नवनियुक्त कलक्टर याहिया खॉ द्वारा पहली बार स्वतंत्रता का झंडा फहराया। उसी विजय दिवस की याद में प्रतिवर्ष 23 अप्रैल विजयोत्सव दिवस मनाया जाता है।
आरा के पत्रकार भीम सिंह का आलेख

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