दर्द की इंतहा: चवन्नी के लिए मजबूर बाप को दमा और गल गया बेटे के कान का पर्दा

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बक्सर खबर। जगजीत सिंह की एक गजल है-ये जो जिंदगी की किताब है ये किताब भी क्या किताब है, ये किताब भी क्या किताब है/कहीं जानलेवा अजाब है, कहीं मेहरबां बेहिसाब है। हमारी आपकी जिंदगी से सीधा साबका रखने वाली यह गजल आज एक बार फिर आंखों के सामने उतर आई। इसी दुनिया में रहते हैं रंजीत और शिव। रिश्ता बाप-बेटे का है। रिश्ता एक और भी कि दोनों को ऊपरवाले ने बेपनाह दर्द बख्शा। दोनों रोज एक दूसरे को छटपटाते हुए देखते हैं। मजबूरी ऐसी कि कुछ कर भी नहीं पाते। दर्द की दवा खरीदने के लिए पैसे तक नहीं हैं। हम और आप रोज रातों को सो जाते हैं, लेकिन ये दोनों बाप-बेटे छटपटाते हुए रात गुजारते हैं।

कई बार ऐसे ही मंजर देखकर लगता है कि खुदा ऐसा भी करता है क्या? रंजीत कमकर इसी बक्सर शहर में सर्किट हाउस के बाहरी हिस्से वाली जमीन पर झोपड़ी डालकर रहता है। पत्नी का नाम रेणु है। शिव इन्हीं दोनों का बेटा है। अभी महज छह साल का है। कल तक रंजीत रिक्शा खींचकर परिवार का भरण पोषण करता था, अब दमा की बीमारी ने उसे ऐसा जकड़ा कि पिछले एक साल से घर पर बैठकर खांसता रहता है। दवा के बिना मर्ज बढ़ता जा रहा है। रेणु दो-चार घरों में चौका बर्तन करके पति और बच्चों का पेट पाल रही है। बदनसीबी का आलम यह है कि शिव के कान में बीमारी हो गई और पैसे के बिना मर्ज इस कदर बढ़ा कि कान का पर्दा ही गल गया। छह साल के मासूम के कान में मवाद भर गया है जिसके दिमाग पर चढऩे का खतरा भी बढ़ गया है।

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यह कहानी गोधन की तरह है जो इसी मर्ज से इलाज के अभाव में मर गया था। बहरहाल शिव के कान में हमेशा दर्द बना रहता है और उसकी सुनने की क्षमता लगातार कमजोर होती जा रही है। मजबूर रेणु अपनी आंख के सामने अपने जवान पति और अपने मासूम बेटे को दर्द से बेचैन देखती रहती है। इसने शहर के युवा शक्ति सेवा संस्थान के रामजी सिंह और उनके साथियो से अपनी पीड़ा बताई। ये सभी दर्द साझा करने आए और बच्चे को कान के सर्जन पास ले जाया गया। उन्होंने कान साफ किया और बताया कि कान का पर्दा पूरी तरह गल चुका है। जब वह दस साल का हो जाएगा तो एक ऑपरेशन करना पड़ेगा। फिलहाल जख्म सूखने केलिए दवाएं वैगरह लिखी गई हैं। जो इन नौजवानों के द्वारा उपलब्ध करा दी गई हैं।

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