कागज को आइना बना देती है पत्रकार की कलम : दर्पण

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बक्सर खबर : पत्रकार की कलम समाज को आइना दिखाती है। उसके सामने जो खड़ा हो। यह जान ले, वास्तविकता क्या है। आप खबर लिखते हों या स्टोरी। इसका ध्यान जरुर रखे। पाठक आपको क्यों पढ़े। यह मूल तत्व खबर में होना चाहिए। इसके अभाव में आपकी खबर तो चल जाएगी। स्टोरी उद्देश्यहीन हो जाएगी। खबर लिखते समय ध्यान रहे। वाक्य छोटे व प्रभावशाली हों। जिस नेचर की खबर हो उसे उसी शैली में लिखना चाहिए। पत्रकारिता की इन बारीकियों से हमें अवगत कराने वाले हमारे आज के साथी हैं दर्पण सिंह। दर्पण उन युवा पत्रकारों में शामिल हैं। जिन्होंने हमेशा लक्ष्य पर ध्यान दिया। कलम की धुन में मगन यह नौजवान सत्रह वर्षो से पत्रकारिता धर्म निभा रहे हैं। काम के प्रति लगन और एकाग्रता ने वह मुकाम दिया है। आज एशियन एज में डिप्टी एडीटर के रुप में काम कर रहे हैं। ऐसा नहीं दर्पण सिंह ने पत्रकारिता की शुरुआत दिल्ली से की। वे यहीं डुमरांव में पले बढ़े और स्नातक के दौरान ही डुमरांव से ही पत्रकारिता शुरू की। दर्पण आज भी उस पुराने ढर्रे को याद कर रोमांचित होते हैं। फैक्स करने के लिए जेब में रुपये नहीं, बाइक में तेल डालने की समस्या। इन सब के बावजूद वे कभी एसपी, डीएम व नेता के ग्लैमर में नहीं फंसे। कामयाबी के लंबे सफर के बाद भी उन्हें अपने पुराने साथी याद हैं। बक्सर खबर के साप्ताहिक कालम इनसे मिलिए के लिए हमने उनसे बात की। प्रस्तुत है उसके प्रमुख अंश –
नाम के चक्कर में लक्ष्य से भटक जाता पत्रकार 
बक्सर : दर्पण लिखने में जितने निपुण हैं। उनके बात करने की शैली भी उतनी सहज है। प्रारंभ से ही अंग्रेजी भाषा की पत्रकारिता उन्होंने की। लेकिन, जब बात होने लगी तो तुरंत भोजपुरी में आ गए। हमारा प्रश्न रहा। यहां और आप जहां आज हैं। इन दोनों जगहों की पत्रकारिता में क्या फर्क है? हमारे यहां(बक्सर, बिहार)  ट्रेनिंग का बहुत अभाव है। लोकल स्तर पर कई समस्याएं हैं। सक्षम व्यक्ति को मौका नहीं मिलता। पत्रकार आपसी राजनीति का शिकार हो जाते हैं। इसके अलावा वेतन की समस्या। जीविका का संकट सामने रहता है। मजबूरन पत्रकारिता के साथ दूसरे धंधे करने पड़ते हैं।  इस दबाव में लोग लक्ष्य से भटक जाते हैं। कुछ इस ग्लैमर में फंस जाते हैं। डीएम मुझे फोन करता है। एसपी से मित्रता है। थानेदार रोज चाय पर बुलाता है। इस तरह की आभा पत्रकार को काम नहीं करने देती। उसकी लेखनी और सच दोनों प्रभावित होते हैं। बावजूद इसके अगर आप उस सिस्टम में रहते हुए चुनौती का सामने करते हैं। तो आपसे बेहतर पत्रकार कोई नहीं है।
संघर्ष व सफलता से भरा है पत्रकारिता जीवन 
बक्सर : दर्पण सिंह ने वर्ष 2001 में हिन्दुस्तान टाइम्स के लिए लिखना प्रारंभ किया। 2005 तक लगातार बक्सर से लिखते रहे। गंगा का कटाव हो या दियरा का सीमा विवाद। इन सब पर लिखा। चार साल तक संघर्ष की पत्रकारिता चलती रही। खबरें खूब छपी. पैसे तब बहुत कम मिलते थे, लेकिन रिपोर्टिंग में कुछ कर गुजरने का जज्बा था। अंग्रेजी ट्यूशान पढ़ा के किसी तरह कुछ पैसो का इंतज़ाम करने लगे। कई लोगो ने मदद की. कोई मोटरसाइकिल में पेट्रोल भरवा देता, कोई मोबाइल रिचार्ज करवा देता। डुमराव के तुलसी तिवारी ने अपना पीसीओ बूथ फ़ोन करने और फैक्स करने के लिए फ्री कर दिया था। जब अच्छी तनख्वाह मिलने लगी, तब भी उन्होंने पैसे लेने से मन कर दिया। बक्सर में रंजीत कुमार, जो अभी पटना में इनाडु टीवी के लिए काम कर रहे हैं, अक्सर अपने चौरसिया लॉज का कमरा शेयर करने देते।
दर्पण कहते हैं पत्रकारिता में उन्हें लाने वाले डुमराव के ही संजय सिंह हैं। जो अभी दिल्ली में इकनोमिक टाइम्स के लिए बतौर विशेष संवाददाता काम कर रहे हैं। शिक्षक-पत्रकार कमलेश सिंह का भी खूब सहयोग मिला। हिंदी माध्यम से पढाई, और पत्रकारिता अंग्रेजी में। पढाई के साथ-साथ दर्पण सारा-सारा दिन अंग्रजी अखबार, किताबें इत्यादि पढ़ते रहते।
बक्सर के बाहर नौकरी मिलना बहुत मुश्किल था। मुफस्सिल की पत्रकारिता के नाम पर दिल्ली-पटना में नौकरी कौन देता? करियर में बड़ा मोड़ तब आया जब दर्पण पत्रकारिता की पढाई के लिए 2005 में देश के प्रतिष्ठित भारतीय जनसंचार संस्थान (ओडिशा परिसर) में चयनित हुए. (वहीँ उनकी मुलाकात अमृता दास से हुई जो 2011 में उनकी जीवन संगनी भी बानी). कोर्स पूरा कर दर्पण ने 2006 में हिंदुस्तान टाइम्स के लिए पटना में बतौर सब-एडीटर ज्वाइन किया. लिखते भी रहे।
2007 में अहमदाबाद में डीएनए अखबार बतौर सीनियर सब-एडीटर ज्वाइन किया। 2008 में फिर वापस हिंदुस्तान टाइम्स. इस बार आगरा संस्करण के ब्यूरो चीफ के रूप में। 2009 में लखनऊ ट्रांसफर हुआ। 2010 में फिर ट्रांसफर, इस बार नॉएडा ब्यूरो चीफ का प्रभार। 2012 में दिल्ली मुख्यालय तबादला हुआ जहाँ वो डिप्टी मेट्रो एडीटर के पद तक गए। 2015 में इंडीया टुडे के एसोसिएट एडिटर के रुप में ज्वाइन किया। 2016 में टाइम्स ऑफ़ इंडिया (असिस्टेंट एडिटर) और फिर Asian Age (डिप्टी एडीटर) पहुँच गए। दर्पण एक और परिवर्तन के लिए तैयार हैं। इस बार अखबार है डीएनए जहाँ वो बतौर एसोसिएट एडीटर काम करेंगे।
व्यक्तिगत जीवन 
बक्सर : दर्पण डुमरांव निवासी अनिल कुमार सिंह और सविता देवी के दूसरे होनहार पुत्र हैं। इनका जन्म 17 फरवरी 1981 में हुआ। बड़े भाई रेलवे की नौकरी करते हैं। आज दर्पण भी अच्छे मुकाम पर हैं। राज हाई स्कूल से मैट्रिक, डीके कालेज से स्नातक व आई आई एम सी से पत्रकारिता कर दिल्ली में बक्सर और बिहार का नाम रौशन कर रहे हैं। जीवन के इस सफर में इनकी मुलाकात पत्रकारिता कोर्स के दौरान 2005 में अमृता दास से हुई। इन दोनों के बीच पनपा आकर्षण धीरे-धीरे प्यार में बदलता गया। वर्ष 2011 में अमृता उनकी अद्र्धागिनी बन गईं। यहां उनका भी परिचय देना जरुरी है। अमृता बिजनेस स्टैंडर्ड की पत्रकार हैं। वो मूलतः बिज़नेस पत्रकार हैं लेकिन उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स, मिड-डे, और इंडियन एक्सप्रेस जैसे समूहों के साथ भी काम किया है।
दर्पण का कहना है छोटे कसबे से बड़े शहर का सफर आसान नहीं होता। कई रुकावटों का सामना करना पड़ता है। फोकस बहुत जरुरी है। भटकाव से बचना बहुत जरुरी है. डीएम, एसपी आपको जानता है, इसी मुगालते में रहने से आप लक्ष्य से भटक सकते हैं। वे कहते हैं: चाहे आप रिपोर्टिंग में हों या संपादन में। हमेशा सरलता और स्पष्टता पे जोर दें। पाठक आपकी खबर क्यों पढ़े, इसका उसके जीवन से क्या लेना-देना है, ये खबर में जरूर हो। आजकल कॉर्पोरटे और राजनीतिक दखल बहुत है। टीवी और सोशल मीडिया का खूब जोर है। लेकिन प्रिंट की पत्रकारिता अभी जिन्दा रहेगी।

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