-जाने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू के बलिदान दिवस के बारे में
बक्सर खबर। आज 23 मार्च है, जिसे स्वतंत्र भारत के इतिहास में बलिदान दिवस के रुप में जाना जाता है। इसी तिथि को भारत के तीन क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी। भगत सिंह, राजगुरू व सुखदेव। इस आलेख में आपको उनके बारे में जानकारी मिलेगी। साथ ही आप यह भी जान लें। वे पत्रकार थे, अपने जीवन काल में उन्होंने विभिन्न समाचार पत्र व प्रतिका का संपादन किया था। आइए जानते हैं उनके बारे में।
भगत सिंह का जीवन परिचय
भगत सिंह का जन्म 28 सितम्बर 1907 को हुआ। पढ़ाई के दौरान उनका संपर्क जुगल किशोर, भाई परमानन्द और जयचंद विद्यालंकार हुआ। साल 1923 में घर छोड़कर कानपुर चले गए। भगत सिंह हिंदी, उर्दू और पंजाबी तीनों भाषाओं के अच्छे जानकार थे। पंजाबी पत्रिका कीर्ति (अमृतसर), उर्दू में ‘अकाली और चाँद’ में उनके कई लेख प्रकाशित हुए। कानपुर में अपना नाम ‘बलवंत सिंह’ बदलकर गणेश शंकर विद्यार्थी के समाचार पत्र दैनिक ‘प्रताप’ के संपादन विभाग में काम किया। पुलिस की सक्रियता बढ़ने लगी और वह अलीगढ के एक स्कूल में पढ़ाने लगे।
अगले 6 महीनों के बाद वह फिर लाहौर लौट गए। वहां कुछ दिन बिताने के बाद वे दिल्ली आ गए। यहाँ उन्होंने दैनिक ‘वीर अर्जुन’के संपादन विभाग में काम करना शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद वह दुबारा कानपुर लौट आए। इस बीच उनका संपर्क बटुकेश्वर दत्त, अजय घोष, विजय कुमार सिन्हा और योगेश चन्द्र चटर्जी जैसे क्रांतिकारियों से हो चुका था। लाहौर में 1926 के दशहरा के मेले में किसी ने बम से हमला किया। पुलिस ने इस सम्बन्ध में भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया। हालाँकि इस घटना से भगत का कोई लेना देना नहीं था। उच्च न्यायालय ने उन्हें 60 हजार की जमानत पर रिहा कर दिया। सरकार के पास कोई सबूत ही नहीं था, इसलिए यह केस खत्म कर दिया गया।
क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय पार्टी की पहल शचीन्द्रनाथ सान्याल, रामप्रसाद बिस्मिल और योगेशचंद्र चटर्जी ने की थी। उन्होंने 1923 में ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ की बुनियाद रखी। भगत सिंह भी इस दल के साथ जुड़ गए और उनका नाम ‘बलवंत’ रखा गया। काकोरी घटना के बाद यह लगभग निष्क्रिय हो गया था। इसके अधिकतर नेता जेलों में बंद थे। भगत सिंह कानपुर के विजय कुमार सिन्हा और लाहौर के सुखदेव के साथ क्रांतिकारी दल को फिर से संगठित करने लगे।
8-9 सितम्बर 1928 को दिल्ली के कोटला फिरोजशाह में एक बैठक बुलाई गई। इस बैठक में बिहार से दो, पंजाब से दो, एक राजस्थान और पांच संयुक्त प्रान्त से इकट्ठे हुए। चन्द्रशेखर आजाद को सुरक्षा की दृष्टि से आने के लिए मना कर दिया गया। एक अन्य क्रांतिकारी ने बैठक से दूरी बना ली। सुखदेव, फणीन्द्रनाथ बोस और मनमोहन बनर्जी भी यहाँ शामिल हुए थे। भगत सिंह के सभी प्रस्ताव दो के खिलाफ छह के बहुमत से पारित हो गए। इस बैठक में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया और दिल्ली में 4 जून 1929 को उनके खिलाफ मुकद्दमे की सुनवाई शुरू हुई। दो दिन बाद उनके बयान लिए गए। सेशन जज मिडल्टन ने 10 जून को उन्हें आजन्म कारावास का फैसला सुना दिया।
भगत सिंह और दत्त दोनों भूख हड़ताल पर चले गए। इसी दौरान उनपर 10 जुलाई, 1929 को लाहौर में सहायक पुलिस अधीक्षक सांडर्स की हत्या का मुकद्दमा चला। भगत सिंह ने विरोध स्वरूप न्यायालय में पेशी के लिए आना बंद कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने सेंट्रल असेम्बली में एक प्रस्ताव पारित कर दिया कि अभियुक्त अपने को अदालत आने के अयोग्य बना ले तो न्यायाधीश को अधिकार होगा कि वह उनकी अनुपस्थिति में कार्यवाही जारी रखे।इस सम्बन्ध में गवर्नर जनरल, इरविन ने 1 मई 1930 को लाहौर षड़यंत्र केस पर एक अध्यादेश जारी किया।
आखिरी बार वे सभी 12 मई 1930 को अदालत के सामने पेश हुए और देशभक्ति के गीत गाने लगे। ब्रिटिश सरकार को यह मंजूर नहीं था, तो वहां पुलिस द्वारा उन्हें पिटा जाने लगा। इस घटना के बाद वे कभी अदालत में नहीं गए। अतः बिना अभियुक्तों के 3 महीनों तक कार्यवाही चली और 26 अगस्त 1930 को समाप्त हो गई। न्यायाधिकरण का फैसला 7 अक्तूबर 1930 को सुनाया गया। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी, सात को आजन्म कालेपानी की सजा, एक को सात साल और एक को तीन साल की कैद सुनाई गई। भगत सिंह अपने परिवार से आखिरी बार 3 मार्च 1931 को मिले। सरकारी वकील कर्देन नोड ने फांसी का हुक्म ले लिया। 23 मार्च 1931 को 7 बजकर 33 मिनट पर सभी को फांसी दे दी गई।
(संदर्भ संकलन : जीतेन्द्र नाथ सान्याल, अमर शहीद भगत सिंह, कर्मयोगी : इलाहाबाद, 1947, पृष्ठ 53-57)