डुमरांव तो दिल में था, पर बिहार से बचते थे उस्ताद

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निराला बिदेसिया
सवाल-‘‘कुछ गाते हो?’’
जवाब- नहीं उस्ताद.
सवाल- कोई साज बजाने का सउर है?
जवाब- ना उस्ताद.
पहले थोड़ा मुंह बिचकाये. मेरे चेहरे पर निराशा के भाव छा गये. अगले ही पल वे बच्चों जैसा खिलखिलाते हुए मेरे पीठ पर हाथ फेरते हुए कहने लगे- एका मतलब ई हुआ कि एकदम बेसुरे हो तुम. तब फिर का बात करोगे संगीत पर मुझसे!
फिर अगला सवाल—अच्छा ई बताओ कि गीत—संगीत पर कुछ जानते भी हो?
मेरा जवाब होता है— रुचि है कला में, गीत—संगीत में, अनुरागी हूं कला का.
ठहाका लगाते हैं. तब तो ठीक हौ. तब बतकही होखी.
कोई 12—13 साल पहले का यह छोटा-सा संवाद है. यह डायरी के पन्नों की बजाय मानस में गहराई और असरदार तरीके से सदा-सदा के लिए अंकित है. उस्ताद से उस मुलाकात की याद हमेशा आती है. उस्ताद माने बिस्मिल्लाह खान. शहनाई के शहंशाह.संगीत के अनोखे साधक. काशी के फकीर. संत. काषी के अनोखे फकीर-संत. और इसमें जोड़ दे तो आत्ममुध बिहार से भारत रत्न वह दुर्लभ बिहारी, जिसने अपने को बिहारी कहने से बचाये रखा. परहेज करता रहा. हालांकि बिहार से भले ही उस्ताद को परहेज हो, लेकिन डुमरांव उनके दिल में बसता था।
उस्ताद से इस बात—मुलाकात का मौका अचानक ही निकल आया था.चित्रकुट गया था. एक मीडिया वर्कशोप में. वापसी में बनारस उतर गया. प्रभात खबर में कार्यरत था, वहां से घर में एकाध दिन रूकने के नाम पर छुट्टी बढ़ने की गुंजाइश कम थी तो एक जाल फेंक दिया था कि बनारस इसलिए उतर जा रहा हूं, क्योंकि इकट्ठे बनारस में तीन महान संगीत साधकों का इंटरव्यू करता आउंगा, जिसे क्रमवार प्रकाशित​ करते रहेंगे. बिस्मिल्लाह खान, पंडित किशन महाराज और छन्नुलाल मिश्रा के नाम बताये थे. संस्थान तैयार हो गया. मैंने खुद से एकदम से आसानी से तय कर लिया था कि बनारस के इन तीनो संगीतकारों को एक दिन में इंटरव्यू कर निपटा लूंगा और बाकी दो दिनों तक घर-परिवार और यार-दोस्तों के साथ वक्त गुजार लूंगा. लेकिन मैं गलतफहमी का शिकार था.
 किशन महाराज से मिलने के बाद अब अगले दिन बिस्मिल्लाह खान तक पहुंचने की बारी थी. अगले दिन उनके यहां दुपहरिया शुरू होने के पहले घर पहुंचा. बेतहाशा गरमी और उमस वाले दिन थे. खबर भिजवाया. साथ में एक परची भी कि झारखंड से आया हूं, फलां अखबार में हूं, बातचीत करना चाहता हूं. पूरा भरोसा और विश्वास है कि आप ना नहीं कहेंगे. बुलावा आया. सराह हरहा मोहल्ले में रहते थे वे. तीसरी मंजिल पर बने एक कमरे में. वहां पहुंचा. खाटनुमा बिस्तर पर बैठे थे उस्ताद. दरी जैसा बिस्तर था कुछ. तपती गरमी में पसीने-पसीने. सामने एक शहनाई थी. और एक हाथ वाली घंटी. उस घंटी का इस्तेमाल वे बजाकर किसी को बुलाने के लिए करते थे. पहुंचा, उनके पैर छुए. इशारे में बोले-बैठो. सोचता रहा कि यह भारत रत्न कैसे रहता है? इस आदमी के चाहनेवाले दुनिया भर में फैले हुए हैं. इनके मुरीद भला कहां नहीं हैं. एक बार इशारा कर दें तो पूरा घर एसी हो जाए, इनके छोटे से कमरे की कौन-सी बात. उनके बारे में सुना हुआ एक किस्सा भी याद आया. किसी ने बताया था कि एक बार अमेरिका में रहनेवाले एक अप्रवासी भारती ने उस्ताद को कहा था कि भारत के तमाम बडे़ गवैये-बजवैये विदेशों में जाकर रह रहे हैं, अपना संस्थान खोल रहे हैं, आप भी चलिए. उस्ताद ने उस एनआरआई से कहा था- मैं अकेले नहीं, मेरे साथ एक छोटी-सी टीम है, उनके परिवार के लोग हैं. एनआरआई ने कहा कि सबको ले चलेंगे, आप हां तो कहिए. बिस्मिल्लाह ने कहा था कि सब ला दोगे यार, सब कर दोगे लेकिन अमेरिका में गंगा कहां से बहाओगे, बनारस कहां से बसाओगे और मैं बनारस के बिना, गंगा के बिना नहीं रह सकता. यह किस्सा ही है, सुना था कभी. बिस्मिलाह खान सामने थे खटिया पर, मैं उनके सामने. तपती गरमी और पसीने से तर- ब-तर उनके बदन को देखकर यह किस्सा याद आ रहा था कि कैसे एक झटके में मना कर दिये होंगे उस एनआरआई को. वह भी उस दौर में, जब भारत के बड़े नामचीन संगीतकारों का विदेशों में बस जाने की आकांक्षा हिलोर मार रही थी. यह सब सोच ही रहा था कि उस्ताद की आवाज कानों से टकरायी- कुंछ गाते हो. कोई साज बजाने का सउर है, नहीं तो फिर का बात करोगे संगीत पर…!
बनारस में रहते हुए बनारसी कलाकारों के स्वाभिमान, अक्खड़पन और ठसक को तो जानता था लेकिन बिस्मिल्लाह जैसे कलाकार के फकीरियत से बिल्कुल अनजान था. बिस्मिल्लाह खान से मिला और उन्होंने ही सवाल पूछने की शुरुआत कर दी तो समझ गया कि अब यहां भी कोई इंटरव्यू नहीं होनेवाला. लेकिन अचानक ही उस्ताद जब बच्चों जैसा खिलखिलाये और पीठ पर हाथ फेरते हुए कहे कि अच्छा ठीक है कोई बात नहीं, जो मन में है पूछो तो राहत मिली. और उनके हाथों के स्पर्ष से अजीब सी अनुभूति हुई. उस स्पर्ष को अब भी महसूस करता हूं. खुद से, खुद पर गौरवान्वित होता हूं कि मेरे पीठ पर भारत के एक अद्भुत व्यक्ति ने सेकेंड भर के लिए हाथ फेरा था.
उस्ताद से मिला था तो वे थोड़े बीमार रहते थे. उनके पास पहुंच तो गया लेकिन कहां से उनसे बात शुरू करूं, समझ नहीं पा रहा था. बात बिहार से ही शुरू कर दिया. बिहार से उनके जन्मना रिश्ते की बुनियाद पर…अभी यह वाक्य मुुंह से निकला ही था कि उस्ताद आप मूलतः बिहार से हैं… उन्होंने बीच में ही रोका-टोका और कहा कि अरे यार मैं बनारसी हूं. बनारस मेरे रग-रग में है, मेरी रूह का रिश्ता बनारस से है. बिहार का प्रसंग छोड़ दिया. दूसरे विषयों पर बात होने लगी. पूछा कि आपने तो शादी-व्याह में मामूली कलाकारों द्वारा बजाये जानेवाले एक सामान्य-से तुतुहरीनुमा वाद्ययंत्र, न तो जिस वाद्ययंत्र की कोई कद्र थी, न उसे बजानेवालांे की, उसे दुनिया भर में एक प्रतिष्ठित वाद्ययंत्र बना दिया और उसके बजानेवालों में गर्व का भाव भर दिया, कैसा लगता है? उस्ताद का जवाब था- मैं तो सिर्फ साधता रहा शहनाई और संगीत को, बाकि उसका असर क्या हुआ, यह जानना मेरा काम नहीं. तबियत नासाज होने की वजह से उस्ताद ज्यादा बातचीत करने में असमर्थ थे. ज्यादा देर बात न हो सकी. लौट आया. लौटते हुए उन्होंने कहा कि जाओ, फिर कभी आना, तबीयत ठीक रहेगी तो जमकर बात करेंगे. फिर उन्होंने नसीहत दी कि कुछ गाना-बजाना जान लो. यह जो दुनिया में फसाद देख रहे हो न वह लोगों के बेसुरे होने का ही परिणाम है. जिस दिन लोगों का सुरों से लगाव हो जाएगा, उसकी समझ आने लगेगी, वे संयमित हो जाएंगे, उन्मादी नहीं हो पाएंगे, इसलिए सबको सुरों की समझ होनी चाहिए. कला के करीब होना चाहिए इंसान को, कला ही इस घोर मुश्किल समय में नफरत और फसादी मन को शांत कर एक नयी राह निकाल सकता है. उस्ताद यह नसीहत दे रहे थे, न जाने क्यूं मेरे आंखों से छलछल आंसू निकलते जा रहे थे. वह भावुक क्षण था. अंदर तक, पोर-पोर को भिगोदेनेवाला.
उस्ताद के यहां से विदा हुआ. उन्हानें फिर से कभी बुलाया था. वह फिर कभी नहीं आ सका. उसके बाद उन्हें एक प्रेस मीट में देखा था. संयोग से उस दिन बनारस में ही था. उस्ताद को किसी ने चांदी की शहनाई भेंट की थी. मीडिया के लोग उनके पास पहुंचे थे. उस्ताद जब भी प्रेस से मिलने की बात करते थे, ठेलमठेली मच जाती थी उनके यहां जाने के लिए. खटिया पर बैठे उस इंसान को कैमरे में कैद करने की होड़ मच जाती थी. उस रोज प्रेस से मिलने के दौरान ही किसी ने कह दिया कि उस्तादजी, चांदी वाला शहनाई मिला है, जरा उसको बजाकर दिखाइये. उस्ताद हत्थे से उखड़-से गये. कहने लगे कि किसको सुनाये, तुम्हे. संगीत जानते हो, शहनाई जानते हो, सुर-ताल की समझ है. जब जी में आये, जहां जी में आये शहनाई बजाकर सुना दें! उस्ताद ने शांत कर दिया था माहौल को.
उसके बाद कभी उस्ताद को करीब से नहीं देखा. कभी मिला नहीं. लेकिन मन में एक गजब का भाव आया उनके प्रति. उनकी फकीरियत के प्रति.
उस्ताद से फिर कभी मिला नहीं लेकिन उनके बारे में जाने में रुचि बनी रही. गंगा और बनारस से उनके लगाव के कई किस्से सुने. यह किस्सा भी सुना कि जब बाबरी ध्वंस हुआ तो उनके पास बनारस के मुसलमानों का जत्था पहंुचा कि उस्ताद बाबरी गिरा दी गयी. आप कुछ बोलिए. उस्ताद ने सभी मुसलमानों को कहा कि कहीं और नमाज पढ़ लेना, कोई और मस्जिद बनवा लो. किस्से में ही बताया जाता है कि उस्ताद की इस बात से मुस्लिम नाराज हो गये थे लेकिन बिस्मिल्लाह ने कभी परवाह नहीं की थी. विश्वनाथ मंदिर के पास उनके शहनाई बजाने के किस्से सुने. उनके तप और ताप का असर जाना. उनकी दत्तक पुत्री षोमा घोष के बारे में जाना, जो एक बार उनके पास आयी तो सब छोड़छाड़ उनकी बिटिया ही बन गयी और फिर बिटिया के लिए उस्ताद अब्बा ने हर फर्ज निभाये. अपनी बिटिया के लिए पिया मेंहदी मंगा द… से लेकर मिरजापुर कईल गुलजार हो… जैसे कजरी गीतों के धुन को कंपोज किया, खुद से शहनाई बजायी ताकि उनकी बिटिया अच्छे से गाये. उस्ताद के बारे में यह भी जाना कि वे स्वभाव से बनारसी फक्कड़ थे. इसका गुमान नहीं रहता था कि वे इतने नामवर हो गये हैं तो बिन बुलाये भी कहीं क्यों चले जायेंगे. उनका अपना ठस्सा था. बनारसवाले भी रोज उनके यहां दूसरों की तरह दरबार नहीं लगा सकते थे. अगर कोई बुलानेवाला सिर्फ पैसे के बल पर उन्हें कहीं ले जाना चाहे तो लाख-करोड़ बरसा दे, वे टस से मस नहीं होते थे और अगर बुलानेवाला फकीर भी हो लेकिन दिल में प्रेम हो तो वे खुद समय पर पहुंच जाते थे. वे रिश्ते बनाते थे. निभाते थे. उस्ताद ने लता मंगेशकर से भाई-बहन का रिश्ता बनाया तो उसे बखूबी निभाते रहे. एक बार तो लता के यहां उनके जन्मदिन पर अचानक ही बिन बुलाये पहुंच गये कि बहन का जन्मदिन मनाने आया हूं, बाजा बजाउंगा. लता मंगेशकर ने खुद बताया है कि वह क्षण उनके जीवन में अविस्मरणीय क्षण जैसा है, जिसे वह कभी नहीं भूल पाती.
बिस्मिल्लाह शास्त्रीयता और लोकधर्म को मिलाकर संगीत की रवायत को आगे बढ़ानेवाले अनोखे इकलौते कलाकार हुए. उस दौर में, जब शास्त्रीय कलाकार देश छोड़ दुनिया के अलग-अलग देषों में पंचतारा होटलो ंमें कंसर्ट देने में सारी उर्जा लगा रहे थे और भारत के होकर भी भारत से दूरी बना रहे थे, बिस्मिल्लाह अपने बनारस में ही बने रहे. वे बनारस में संगीत की संतई करते रहे, फकीरी करते रहे और शास़्त्रीय और लोकधुनों को मिलाकर संगीत को अथाह थांती देते रहे. उनके धुन गांव-गांव पहुंचते रहे. शादी-व्याह में अनिवार्य हिस्सा बनते गये. शहनाई बजानेवाले बिस्मिल्लाह की तरह टोपी लगाकर, शान से अपना मान बढ़ाते रहे. वे संगीत के साथ कलाकर्म के एक वंचित समुदाय में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान का भाव भरते रहे, एक नयी परंपरा का विकास करते रहे.
उस रोज उस्ताद से बात कर लौटते समय एक ही खटक रही मन में कि बिहार पर ज्यादा बात क्यों नहीं किये वे? जवाब उनसे तो नहीं पूछ सका था लेकिन पिछले कुछ सालों से बिहार में ज्यादा सक्रियता से काम करने के बाद एहसास हुआ कि जन्मस्थल होने के बावजूद कला-साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में स्वआत्ममुग्ध बिहार से उनका कभी लगाव-जुड़ाव नहीं हुआ तो वह भी अकारण नहीं रहा होगा. बिहार ने कभी उनकी कद्र भी तो नहीं की. जब-तब बस स्मारिकाओं में उन्हें छापता रहा कि बिहार के गौरव हैं. बिहार ने उन्हें स्मारिकाओं में कैद कर रखा. स्मारिकाओं और स्मारकों से स्मृतियां दिखावटी तौर पर कैद होती हैं. शायद बिस्मिल्लाह जानते होंगे कि जिस बिहार ने अपने पंडित रामचतुर मल्लिक जैसे गायक, पूरब अंग की ठुमरी वाली गुलाबबाई जैसी गायिका की कद्र नहीं की या अब भी नहीं करता, ऐसे में वह अगर अपनी बिहारी पहचान बताते ही फिरते तो भी क्या हो जाता? शायद उस्ताद को मालूम होगा कि बिहार का प्रभु वर्ग कलाकारों को अब भी नचवैया-गवैया-बजवैया सेे आगे कुछ नहीं मानता. कला के सामाजिक सरोकार, सांस्कृतिक सरोकार को बिहार अभी नही ंसमझता. उस्ताद क्या सोचते थे, क्या सोचकर बिहार पर बात नहीं किये थे, नहीं करना चाहते थे, नहीं मालूम लेकिन एक बड़ा सच तो यह भी है ही कि बिहार कला-संस्कृति-साहित्य में एक जड़वत चेतना का शिकार हो चुका राज्य है. वह अपने लोगों की कद्र नहीं करता. बिहार में अपने भारत रत्न बिस्मिल्लाह के नाम पर पहचान स्थापित करने की कोई बड़ी कोशिश नहीं दिखेगी. हां सिवान के पंजवार में घनष्याम शुकुल मास्साब जैसे कुछ लोग दिखेंगे, जो दूर गांव में बिस्मिल्लाह खान के नाम पर संगीत महाविद्यालय चलाते हुए मिल जायेंगे. बिस्मिल्लाह की बात तो दूर, बिहारी अस्मिता उभारने के इस युग में अपने कृतित्व, व्यक्तित्व व नेतृत्व क्षमता से बिहारीपन को एक बड़े फलक पर स्थापित करनेवाले बिहार के बड़े आईकाॅन भिखारी ठाकुर के नाम पर कोई बड़ा संस्थान नहीं दिखेगा. हालिया वर्षों में उनकी 125वीं जयंति वर्ष गुजरी. उसी वर्ष, जिस वर्ष बिहार के दो राजनेता श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिन्हा की 125वीं जयंति वर्ष थी, भिखारी भी 125वें साल में प्रवेश किये थे. श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह बाबू को सरकार ने, सभी राजनीतिक दलों ने बड़े पैमाने पर याद किया लेकिन भिखारी अछूत बने रहे. अलगाव-दुराव-बिलगाव के शिकार. जिस छपरा के भिखारी थे, उसी छपरा के महेंदर मिसिर भी हुए, जिन्होंने पुरबियागीतों व गायकी के जरिये बिहारी लोकसंगीत को दुनिया भर में फैल जाने, फैला देने वाली रचनाएं रची. वे महेंदर मिसिर भी बिहारीपन की पहचान हैं, लेकिन महेंदर मिसिर कहीं नहीं दिखेंगे बिहार में. छपरा में एकाध प्रतिमाओं को छोड़कर. जब रामचतुर मल्लिक, गुलाबबाई, भिखारी ठाकुर, महेंदर मिसिर जैसे लोगों को बिहारी अस्मिता के युग में, बिहारी पहचान को उभारने के दौर में किनारे कर रखा गया है तो ऐसे में अब मगही के उस्ताद सुकन दास मांझी, लोहा सिंह फेम रामेश्वर सिंह कश्यप, मशहूर विद्रोही नचनिया चाईं ओझा, नाटककार चतुर्भुज आदि की थाह  ली जाएगी, यह उम्मीद भी बेमानी ही है. उस्ताद ने कुछ नहीं बताया था लेकिन शायद यह सब महसूसते होंगे तभी वे बिहार पर बात करने से बच निकले थे उस रोज. बिहार बिहारीपन को दुनिया भर में फैलानेवाले आईकाॅन से अलगाव-दुराव का व्यवहार और रिश्ता रखता है, उस्ताद ने अपने स्वभाव और मिजाज के अनुसार खुद ही बिहार से दूरी बना ली थी. ना मालूम वे क्या सोचते थे, क्या महसूसते थे लेकिन अभी जब-जब उस्ताद और बिस्मिल्लाह जैसे शब्द कीबोर्ड से कंपोज कर रहा हूं, लिख रहा हूं, पीठ में झुरझुरी हो रही है. उनके हाथों का स्पर्श महसूस कर रहा हूं, सेकेंड भर के लिए उनके हाथ मेरे पीठ पर पड़े थे. सहलाते हुए. मैं खुद पर गौरवान्वित हो रहा हूं कि मैं उस्ताद से मिला था, उस्ताद ने मुझे क्षण भर के लिए प्यार-दुलार दिया था…

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